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Tuesday, September 1, 2015

काल तुझ से होड़ है मेरी (कविता)-शमशेर बहादुर सिंह

काल,
तुझसे होड़ है मेरी: अपराजित तू-
तुझमें अपराजित मैं वास करूं ।
इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूं
सीधा तीर-सा, जो रुका हुआ लगता हो-
कि जैसा ध्रुव नक्षत्र भी न लगे,
एक एकनिष्ठ, स्थिर, कालोपरि
भाव, भावोपरि
सुख, आनंदोपरि
सत्य, सत्यासत्योपरि
मैं- तेरे भी, ओ' 'काल' ऊपर!
सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल !

जो मैं हूं-
मैं कि जिसमें सब कुछ है...

क्रांतियां, कम्यून,
कम्यूनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं ।

मैं, जो वह हरेक हूं
जो, तुझसे, ओ काल, परे है

2 comments:

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