Thursday, September 26, 2013


कभी कभी यूँ ही मुड़कर उन खंडहरों में घूम आती हूँ,
ऐसा नही उसे फिरसे बसाने का अरमान है। 

पर, उन टूटी फूटी दीवारों के बीच ज़िंदगी हँसती थी कभी,
वहाँ जहाँ मकड़ी के जाले हैं अब, सपने बस्ते थे कभी,

वो उजड़ा सा बगीचा रंगों से खेलता था कभी,
उन धूल से भरी तस्वीरों में मुस्कुराते लम्हे बस्ते थे कभी,

मैं तो वहाँ बस अपने ज़िंदा होने का एहसास करने चली जाती हूँ
उस बर्बाद खंडहर से इतनी मोहब्बत थी कभी , 
की अब उसकी बर्बादी पे रोना नही आता,
बस एक सकून है की वो अब भी खड़ा है वहीं