वक़्त को जितना गूंध सके हम गूंध लिया,
आटे की मिख़दार कभी बढ़ भी जाती है,
भूख मगर एक हद से आगे बढ़ती नहीं।
भूख के मारो की ऐसी ही हालत होती है।
भर जाए तो दस्तरख़ान से उठ जाते हैं।
आओ उठ जाए हम दोनों भी,
कोई कचहरी का खूंटा कब तक दो इंसानो को बाँध के रख सकता है।
कानूनी मोहरों से कब बनते हैं या चलते है रिश्ते,
रिश्ते राशन कार्ड नहीं है।
वक़्त को जितना गूंध सके हम गूंध लिया।
-गुलज़ार
आटे की मिख़दार कभी बढ़ भी जाती है,
भूख मगर एक हद से आगे बढ़ती नहीं।
भूख के मारो की ऐसी ही हालत होती है।
भर जाए तो दस्तरख़ान से उठ जाते हैं।
आओ उठ जाए हम दोनों भी,
कोई कचहरी का खूंटा कब तक दो इंसानो को बाँध के रख सकता है।
कानूनी मोहरों से कब बनते हैं या चलते है रिश्ते,
रिश्ते राशन कार्ड नहीं है।
वक़्त को जितना गूंध सके हम गूंध लिया।
-गुलज़ार