Monday, February 28, 2011

डब्बों में सिमटी ज़िन्दगी !

हर सुबह उठकर जब मैं सूरज की किरणे ढूंढती हूँ,
एक डब्बे से झांकती हुई हिचकिचाती सी किरण मुझसे मिलने आती है।
मैं उसे बाहों में भरना चाहती हूँ , पर वो डर जाती है,
कहती है, जैसे में इस डब्बे में सिमट गई हूँ , वो वैसे खोना नहीं चाहती,
एक टुकड़ा नहीं उसे पूरा आसमान चाहिए, खुद को पहचान सके कम से कम ऐसा एक जहाँ चाहिए।


जब मैं हरी ज़मीन का आँचल ओढना चाहती हूँ, वो खुद में सिमट जाती है,
डब्बों के इस जंगल को वो समझ नहीं पाती है,
मैं उसमे खुद को समां लेना चाहती हूँ , पर वो मुझसे दूर चली जाती है,
कहती है , मेरे जैसे वो खुद को बांध नहीं सकती
उसे अपना आंचल सारे जहाँ में फैलाना है,
नाकि बटें हुए इन बंद डब्बों में सिमट कर अपना अस्तित्व खोना है।

जब मैं उस पंछी के साथ गुनगुनाना चाहती हु, वो चुप हो जाती है,
इन डब्बों में बसे उस दबे हुए शोर की आवाज़ वो समझ नहीं पाती है ।
मैं उसके गीतों को अपना बनाना चाहती हूँ, पर वो मेरे अन्दर कोई संगीत देख नहीं पाती है,
कहती है , मेरी तरह इन डब्बों में बसे शोर में वो खुद के सुरों खो नहीं सकती,
उसके गीत सारे जहाँ में गूंजते जाएँगे,
मेरे इन  डिब्बों के शोर में तो, वो कहीं दूर खो जाएँगे ।

इस डब्बों के शहर में क्या पाया मैंने,
ना मुझे अँधेरे से जगाने वाली किरण मेरे पास है,
इन डब्बों में बसी उन ठंडी भावनाओ से खुद को बचा पाऊं ना उस ज़मीन के आँचल को ओढने की आस है,
सब भूलकर गुनगुनाऊ वो गीत भी ढूंढ नहीं पाती हूँ, डब्बों में बसे उस डरे हुए शोर में ऐसे उलझ कर रह जाती हूँ ।

काश के एक दिन ये डिब्बे ढह जाएं ,
इन डब्बों के अन्दर बसे वो मुर्दा जिस्म इंसान बनकर बहार आयें,
सूरज की किरणों को बाहों में भरकर, इस ज़मीन के आँचल में सिमट पाएं .
वो गीत जो खो गए हैं, उनके सुरों को मिलाकर एक नया गीत गुनगुनाऐं ।

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