Sunday, May 12, 2013




दिल करता है फिरसे पापा की गुड़िया बन जाऊं,

थके हारे जब लौटे पापा, अपनी छोटी - छोटी हथेलियों से उनका माथा सहलाऊं।

कड़कती सर्दियों में पापा की शौल में लिपटे हुए,
उनकी गोद में ही सो जाऊं।

माँ जब डांटे किसी बात पर ,
तो पापा के पास अर्ज़ी ले जाऊं।

पापा के साथ नुक्कड़ की उस दूकान पे जाकर,
मनमानी कर खूब सारी चॉकलेट ले आऊं।

बहुत हुआ ये खेल बडों का,

दिल करता है बस अब पापा की गुड़िया बन, उस चौखट फिर लौट जाऊं।

Saturday, May 11, 2013


बारिश वाली एक वो शाम थी,
सड़क किनारे झगड़े थे जब हम,तर बतर पानी में भीगते हुए
कभी रूठते , कभी मनाते ,सरसराती ठण्ड से  कांपते हुए।

बारिश वाली एक वो शाम थी ,
जब एक  छोटी सी छतरी लेके मैंने तुमको घर तक छोड़ा था ,
वो अदना सी छतरी  बारिश के तेज़ झोंके रोक सके इतनी कहाँ औकात थी उसकी,
वो तो तुम्हारे साथ चंद लम्हे चुराने का एक बहाना  था।

बारिश वाली एक वो शाम थी,
जब तुम मिलने नहीं आये थे,
खिड़की के किनारे बारिश की बूंदों से खेलते हुए ,
न जाने कितने घंटो हमने फ़ोन पर, बातें करते हुए बिताए  थे।

बारिश वाली एक शाम आज भी है पर ,
अब हम झगड़ते नहीं है,
अदना सी वो छतरी आज भी है कहीं, पर अब हम साथ चलते नहीं है।
अब हम साथ में बारिश को साथ में बैठकर तकते ज़रूर है,
पर करने को बातें नहीं है।

बारिश वाली वो शाम तो आज भी आई है,
पर बूंदों में अब वो बात नहीं है।




हर वक़्त लगता है की कुछ कीमती सा खो गया गया है ,
ढूँढने निकलती हूँ  जब , तो क्या खोया मैंने समझ नहीं आता  है 

लगता है जैसे वो किताब जो पढ़नी  शुरू की थी मैंने , वो अब भी अधूरी है ,
पर पन्ने  छानती हूँ जब तो वो खोया हुआ जुमला कहीं मिल नहीं  पता है 

लगता है जैसे अरसों हुए घर लौटे ,
घर की तरफ निकलती  हूँ जब तो लौट  जाने का रास्ता नज़र नहीं आता है

कभी हँसते - हँसते एक आंसू पलकों पर उतर आता है,
फिरसे मुस्कुराने की कोशिश करती हूँ जब , तो वो हँसता सा लम्हा याद नहीं आता है।