तीन साल की इस शादी में बहुत कुछ पाया, पर कुछ खोया भी। समझौते हुए दोनों तरफ से। पर एक समझौता जो मैंने किया, जानकर, की अपना नाम बदला।
शकेस्पीयर की मानें तो "नाम में क्या रखा है"। पर जब सर से नव दाम्पत्य का फितूर उतरा तो समझ आया की जिस नाम को लेकर बड़े हुए, जिस नाम का कभी सुनाम, कभी अपनाम भी हुआ, उस नाम से कई सारी यादें जुडी हैं। उसी नाम से बचपन, यौवन बहुत कुछ जुड़ा है। पर जब तक ये अनुभूति हुई, तब तक तो नाम बदल ही लिया था।
नारी ही क्यों नाम बदले , नारी ही क्यों अपना घर बार छोड़े ? और ऐसे बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल पाये।
आज जो प्रश्न मैंने पूछे, शायद यही मेरी माँ ने भी पूछे हों? उनकी माँ ने भी पूछे हो। पर यही तो रीत है, किसने बनाई ये रीत पता नही। उस समय इस रीत का क्या औचित्य था? पता नही।
एक नाम बदलने का ये मतलब तो नही की आपका शोषण हो रहा है, तो क्या फर्क पढता है?
देखा जाए तो हमारे घर में माँ की हर बात मानी जाती थी, पापा से ज़्यादा मुझे माँ की डांट से भय लगता था।
माँ "हाउस वाईफ" है इससे हमे कभी भी कोई फर्क नहीं पढ़ा।
जैसे माँ सारा दिन घर के लिए खटती थी वैसे पापा बाहर मेहनत करते थे । पापा की मेहनत माँ से ज़्यादा है या कम ये ख्याल कभी नहीं आया मन में।
माँ ने कभी मुझे किसी चीज़ के लिए जबरदसती नहीं की। मुझ पर लड़को से दोस्ती रखने पर या कहीं भी आने जाने पर कोई पाबन्दी नहीं थी।
पर माँ कभी कभी कहती थी की मुझे खाना बनाना आना चाहिए, मैंने नहीं सीखा कभी, क्यूंकि मुझे पसंद नहीं था।
पहली बार जब मासिक धर्म चालु हुआ तो माँ के चेहरे पर थोड़ी थोड़ी गंभीरता देखी थी। मुझमें और सहेलियों में तो बड़ा रोमांच था इस विषय लेकर। अब हम बड़ी जो हो रही थी।
पर जब माँ ने कहा के महीनो के उन दिनों में भगवान के पास मत जाना तो थोड़ा अजीब लगा पर बाद में आदत हो गई , भैया और पापा से बहाने बनाने की भी आदत हो गई।
उन दिनों में खुद को अपवित्र मानने की और काले पॉलिथीन और कपड़ो के नीचे उस सच को छिपाने की भी आदत हो गई। अब अजीब नहीं लगता था।
फिर एक दिन माँ ने ब्रा लेकर दी, तब भी हम सहेलियों के बीच बड़ा रोमांच था। अब हम जवान जो हो रही थीं।
पर मेरी माँ ने और सहेलियों की माओं ने भी, ये कहा की अब कमीज थोड़ी ढीली पहनना, भीड़ भाड़ में संभलकर चलना।
अब हम लड़को की तरफ और वे हमारी तरफ आकर्षित भी होने लगे थे, यही तो स्वाभाविक था।
पर जब रास्ते में कोई छिछोरे लड़के छेड़ जाते थे या कभी भीड़ में कोई हाथ लगा जाता था तो खूब कोसते थे खुदको। इस तरफ आना ही नहीं था, कमीज का बटन खुला तो नहीं, कपडे तंग तो नहीं थे, न जाने क्या क्या सवाल मन में आते थे।
पर घर पर कभी किसी बात की मनाही नहीं हुई।
पढाई पूरी की, नौकरी लगी, फिर अपनी पसंद से विवाह भी किया। माँ ने कभी मेरे किसी भी निर्णय का विरोध नहीं किया।
माँ को बस एक बात की चिंता थी, की मुझे खाना बनाना नहीं आता , घर के काम काज में कुछ ख़ास रूचि नहीं है। मुझे भी कभी कभी लगता था ये सब तो आना ही चाहिए। माँ तो कितनी निपुण है इन सब में।
माँ ने और सबने खूब हिदायतें दी। सबसे मनाकर चलना, सबका सम्मान करना पति से हर बात पर झगड़ना मत इत्यादि।
इन सब बातों की घुट्टी बना के पिली मैंने। मुझे एक आदर्श बेटी , बहु , पत्नी जो बनना था।
तभी तो सब कुछ सोच रखा था २५ में शादी फिर ३० में बच्चे। फिर २-३ साल के लिए काम से वीराम।
क्यूंकि शादी करना और फिर घर संसार बसाना तो हमारा कर्तव्य है।
और फिर माँ की ही तो ज़िम्मेदारी होती है की बच्चों की परवरिश ठीक से हो।
शादी का दिन आया तो सब बहुत ही मनमोहक था। शरीर का हर अंग गहनो से सजा और और लाल रंग के जोड़े में मैं। पर शादी का मुहूर्त देर रात का था जैसे जैसे मुहूर्त पास आया बहुत ही भारी लगने लगा सबकुछ , वहां पति देव एक कुर्ते और पतली सी धोती में जंच रहे थे , काश मैं भी पहन सकती ऐसा कुछ। किलो भर की माला जैसे दम घोटती जा रही थी मेरा।
सुबह - सुबह बिदाई भी हो गई , इतनी सुबह क्यों निकलना है किसी ने नही पूछा, ना मैंने ना ही मेरे घर वालों ने, नए घर में सब इंतज़ार जो कर रहे थे।
पतिदेव तो अपने भाइयों और भाभियों के साथ सैर करने चले गए और मैं साड़ियों में और गहनो में लदी घर पर बैठी रही।
नयी दुल्हन को नज़र जो नहीं चाहिए।
हर रोज़ सिन्दूर लगाने की चूड़ियाँ पहनने की आदत हो गई थी।
ये सब परिवार और पतिदेव के लिए शुभ जो था।
और फिर नाम बदलने की बारी आई , बड़ा अजीब लगा, पहली बार लगा कुछ तो सही नही है। पर माँ ने भी तो बदला था, यही तो रीत है। बदल लिया।
पर अब भी उस नाम से जैसे पहचान नहीं हुई है।
और धीरे धीरे जैसे आँखों से पर्दा साफ़ होने लगा। कई सवाल मन में घर करने लगे।
क्यों बदलूं अपना नाम ? क्या मेरे नाम बदलने से मेरे और पतिदेव के रिश्ते और बेहतर होंगे ? या ना बदलने से हमारा रिश्ता मान्य नहीं?
सिन्दूर लगाने से पति की आयु बढ़ जायेगी सचमुच ? या ना लगाऊं तो कुछ अशुभ होगा ? और फिर मेरी आयु का क्या ? मेरी लम्बी आयु के लिए कौन सिन्दूर लगाएगा या चूड़िया पहनेगा ?
क्या मेरी लम्बी आयु का कोई महत्व नहीं ?? क्या माँ की लम्बी आयु का कोई महत्व नहीं ??
पहली बार माँ पर गुस्सा आया। क्यों नहीं कहा उन्होंने की
२५ में शादी ३० में बच्चे होना कोई ज़रूरी नहीं है।
शादी अपने लिए करना समाज के लिए नहीं , ना करनी हो तो मत करना।
मैंने सिन्दूर लगाया चूड़ी पहनी, पर इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता न तुम्हारे दाम्पत्य जीवन पर और नाहीं तुम्हारे जीवनसाथी के जीवन काल पर।
महीने के उन दिनों में भी तुम वही हो , भगवान को कोई फर्क नहीं पढता।
मैंने ये सब किया पर तुम करो ये ज़रूरी नहीं है।
नाम की इस लड़ाई का कोई औचित्य नहीं।
काश की मेरी माँ ने, और इस दुनिया की बहुत सी माँओं ने अपनी बेटियों को ये कहा होता।
मेरी माँ ने नहीं कहा , पर अगर कभी मैंने माँ बनने का निश्चय किया और बेटी की माँ बनी तो मैं उससे ज़रूर कहूँगी
नारी होने का ये बिलकुल मतलब नहीं के तुम पत्नी, बहु, माँ भी बनो।
तुम कुछ भी बन सकती हो, जो भी तुम चाहो। तुम पर किसी का अधिकार नहीं है।
तुम नारी तो हो पर और उससे भी पहले तुम एक इंसान हो बस इतना करना की एक अच्छी इंसान बनना।