Thursday, August 27, 2015

झांसी की रानी से एक मामूली कर्मचारी तक का सफर।

बैंगलोर की सड़कों पर हर सुबह मैं खुद को झांसी की रानी सा समझती हूँ,
अपनी दू - पहिया मोटर पे सवार गड्ढों से बने रास्तों, लाल बत्तियों और इधर उधर से आती जाती गाड़ियों के बीच से जब रास्ता बना, अपनी रणभूमि (दफ्तर) पहुँचती हूँ।

मगर रणभूमि पहुँचते ही असलियत सामने आ जाती है,

जब यहाँ प्रवेश के लिए भी एक अदना सी मशीन की इजाज़त लेनी पढ़ती है।

जब लैपटॉप की तोप  से मेलों की बौछार होती है,

मैं चुप चाप सारे हथियार डाल देती हूँ।

आत्म समर्पण करती हूँ  और अपने क्यूबिकल रूपी  कारागार में बंद हो जाती हूँ,

न जाने कितने सालों से ये सिलसिला चला जा रहा है ,
जब मैं हर सुबह झांसी की रानी और फिर एक मामूली कर्मचारी बन जाती हूँ। 

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