सुना है इस देश में प्रगति की लहर आई है,
मेरे घर के सामने से गुज़रती हुई चौड़ी चौड़ी सड़कें भी मुझसे यही कहती है,
प्रगति के आने से ही मैने ये शकल पायी है।
उन सड़कों पे दौड़ती हुई तेज़ गाड़िया जब मेरे पास से गुज़रती है,
वो भी मेरे कानों में ऐसा ही कुछ कहती है।
और ऊंची ऊंची इमारतें जब मेरी और देखती हैं
तो प्रगति वाली हील पहन वो
और ऊँची दिखती हैं।
फिर क्या मेरे गाँव की ज़मीन तक अभी ये खबर नहीं पहुंची है,
की उसके चमड़ी पे दरारे है
और फसल से लहलहाने वाले होंठ सूख गए हैं।
क्या वो इतनी नासमझ है की प्रगति वाली ये क्रीम उसने अब तक नहीं लगायी है।
क्या उसे नहीं मालूम की हम बढे जा रहे है एक सुन्दर सशक्त देश की तरफ,
फिर वो ज़मीन क्यों दहाड़े मार मार के रोती हैं.
क्यों चुप चाप दम तोड़ नहीं देती,
न जाने किसकी सहमति की आस लिए बैठी है।
क्यों वो बार बार अपना कुरूप चेहरा सामने ले आती है,
और प्रगति के पाउडर से लिप्त इस देश की बड़ी बड़ी सड़को, इ
मारतों की खूबसूरती को
दाग लगाती है।
क्या ये इतनी नासमझ है
की ये नहीं जानती की इसके कटे फटे चेहरे पर
या इसके आत्महत्या कर लेने पर
ये प्रगति की लहर रुकेगी नहीं।
हम ढांक लेंगे इसकी बदसूरती को
चौड़ी चौड़ी सड़कोंं के और ऊँची ऊँची इमरतोंं के पीछे,
क्या ये नहीं जानती की प्रगति की लहर में बह चले इस देश के चमचमाते चेहरे पर,
इस भद्दे से दाग का कोई अस्तितव नहीं,
फिर भी नजाने क्यों ये दहाड़े मार मार के रोती है.
क्यों ज़िंदा है अब भी
क्यों चुप चाप दम तोड़ नहीं देती है।
मेरे घर के सामने से गुज़रती हुई चौड़ी चौड़ी सड़कें भी मुझसे यही कहती है,
प्रगति के आने से ही मैने ये शकल पायी है।
उन सड़कों पे दौड़ती हुई तेज़ गाड़िया जब मेरे पास से गुज़रती है,
वो भी मेरे कानों में ऐसा ही कुछ कहती है।
और ऊंची ऊंची इमारतें जब मेरी और देखती हैं
तो प्रगति वाली हील पहन वो
और ऊँची दिखती हैं।
फिर क्या मेरे गाँव की ज़मीन तक अभी ये खबर नहीं पहुंची है,
की उसके चमड़ी पे दरारे है
और फसल से लहलहाने वाले होंठ सूख गए हैं।
क्या वो इतनी नासमझ है की प्रगति वाली ये क्रीम उसने अब तक नहीं लगायी है।
क्या उसे नहीं मालूम की हम बढे जा रहे है एक सुन्दर सशक्त देश की तरफ,
फिर वो ज़मीन क्यों दहाड़े मार मार के रोती हैं.
क्यों चुप चाप दम तोड़ नहीं देती,
न जाने किसकी सहमति की आस लिए बैठी है।
क्यों वो बार बार अपना कुरूप चेहरा सामने ले आती है,
और प्रगति के पाउडर से लिप्त इस देश की बड़ी बड़ी सड़को, इ
दाग लगाती है।
क्या ये इतनी नासमझ है
की ये नहीं जानती की इसके कटे फटे चेहरे पर
या इसके आत्महत्या कर लेने पर
ये प्रगति की लहर रुकेगी नहीं।
हम ढांक लेंगे इसकी बदसूरती को
चौड़ी चौड़ी सड़कोंं के और ऊँची ऊँची इमरतोंं के पीछे,
क्या ये नहीं जानती की प्रगति की लहर में बह चले इस देश के चमचमाते चेहरे पर,
इस भद्दे से दाग का कोई अस्तितव नहीं,
फिर भी नजाने क्यों ये दहाड़े मार मार के रोती है.
क्यों ज़िंदा है अब भी
क्यों चुप चाप दम तोड़ नहीं देती है।
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